रोती हुई गलियों में सिसकते हुए दर हैं |
वहशत की हवाओं के उजाड़े हुए घर हैं ||
बढ़ती हुई इस भीड़ में मैं ढूंढ रहा हूँ |
इंसान जिन्हें कह सकूं इंसान किधर हैं ||
जितने हुए मशहूर बने उतने ही डरपोक |
अब साथ चलें उनके देखो कितने गनर हैं ||
चालाक हैं नेता तभी तो पास में उनके |
लोगों को फंसाने के लिए लाखों हुनर हैं ||
बातों के हैं उस्ताद बनाए बड़ी बातें |
करने में मगर काम वो बिल्कुल ही सिफ़र हैं ||
परवाज़ पे क़ाबिज़ हैं सियासत की निगाहें |
बेजान परिंदों के सुलगते हुए पर हैं ||
मैं क्या कहूँ अब हाल तुझे ए मेरे दिलबर |
हालात तेरे शहर के जैसे ही इधर हैं ||
डा ० सुरेन्द्र सैनी