Tuesday, 7 February 2012

रोती हुई गलियों


रोती  हुई  गलियों  में  सिसकते  हुए  दर  हैं |
वहशत  की  हवाओं  के  उजाड़े  हुए  घर  हैं ||

बढ़ती   हुई   इस   भीड़   में  मैं  ढूंढ  रहा  हूँ |
इंसान  जिन्हें  कह  सकूं  इंसान  किधर  हैं ||

जितने  हुए  मशहूर  बने  उतने  ही  डरपोक |
अब साथ चलें उनके  देखो  कितने  गनर  हैं ||

चालाक   हैं   नेता   तभी  तो  पास  में  उनके |
लोगों  को   फंसाने  के  लिए  लाखों  हुनर  हैं ||

बातों     के   हैं   उस्ताद    बनाए   बड़ी   बातें |
करने में मगर काम वो बिल्कुल ही सिफ़र हैं ||

परवाज़ पे क़ाबिज़ हैं सियासत  की  निगाहें |   
बेजान    परिंदों   के   सुलगते   हुए   पर  हैं ||

मैं क्या  कहूँ अब हाल तुझे ए मेरे  दिलबर |
हालात   तेरे  शहर   के  जैसे   ही  इधर  हैं ||

डा ० सुरेन्द्र  सैनी 

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