समय की आग में जो भी जला है |
उसीकी आँख में इक ज़लज़ला है ||
समय आख़िर किसी का कब टला है ?
यही जीवन मरण का सिलसिला है ||
हमारा मान लेने पर तुला है |
कहाँ का दूध का तू भी धुला है ?
परिंदा आसमाँ में उड़ चला है |
शिकारी साज़िशों में मुब्तला है ||
तुम्हारे शहर के अमृत से अच्छा |
हमारे गावँ का पानी भला है ||
जो दिल से काम लेते हैं उन्हें तो |
सदा ही भावनाओं ने छला है ||
ख़ुदा क्या ख़ुद को भी मैं भूल बैठा |
अरे ये इश्क़ देखो क्या बला है ||
चुराके दिल दिखाओ पारसाई |
हमें बस आपसे ये ही गिला है ||
मेरी बन्दूक हो कांधा तुम्हारा |
यही तो आज जीने की कला है ||
वफ़ा के नाम पर हम जान देदें |
हमें तो ये विरासत में मिला है ||
मुसलसल लहर टकराती है देखो |
नहीं साहिल हिलाए से हिला है ||
मेरा तो नाम तक भी भूल बैठा |
मगर ग़ैरों से क़ाफ़िर जा मिला है ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
लोगों से तू चाहे परदादारी रख |
मुझसे थोड़ी सी तो आपसदारी रख ||
लीक पे चलना तो दुनिया की आदत है |
अपनी कुछ बातें दुनिया से न्यारी रख ||
जिसके घर कल पूरी बोतल पी आया |
उसके ग़म में भी कुछ हिस्सेदारी रख ||
मुझको मेरी तन्हाईं में जीने दे |
ले तू अपने पास ये दुनिया सारी रख ||
हिंदी उर्दू के चक्कर में मत पड़ना |
दिल के यूँ जज़्बात सुनाना जारी रख ||
माना की महबूब रूठ कर चला गया |
तू भी अपने अंदर कुछ ख़ुद्दारी रख ||
घायल हों जज़्बात कभी तो मत डरना |
तू अपनी चाहत का पलड़ा भारी रख ||
हो हंगामा कोई इससे पहले ही |
मैख़ाने से उठने की तैयारी रख ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
कहने पर आमादा है कुछ सुनने पर आमादा है |
जैसे तैसे मुझसे वो बस लड़ने पर आमादा है ||
क्या तेरा घर क्या मेरा घर इक दिन तो छीन जायेगा ?
फिर क्यूँ इस बेगाने घर में रहने पर आमादा है ||
डरता हूँ यें घर की बातें दुनिया वाले सुन लेगें |
पर छोटा बच्चा सारा सच कहने पर आमादा है ||
घर की पहली शादी के इस मस्ती वाले आलम में |
दादी क्या परदादी तक भी नचने पर आमादा है ||
मेरा क़ातिल घर के अन्दर छत से दाख़िल क्यूँ होगा ?
जब घायल दरवाज़ा ख़ुद ही खुलने पर आमादा है ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
साज़िश की गई ड्राई डे की अफ़वाहें फैलाने में |
साक़ी भी है मीना भी है सब कुछ मैख़ाने में ||
दीवाने की कैसी ज़िद है जीना है तो पीना है |
दीवाना तो दीवाना है क्या आये समझाने में ?
महगांई के मारों का ग़म मैं भी मिल कर बाँटूगा |
साक़ी बस थोड़ी ही देना तू मेरे पैमाने में ||
बेचारे रिंदों की नज़रें ठहरी हैं दरवाज़े पर |
साक़ी अटका है ट्रेफिक में वक़्त लगेगा आने में ||
अब तो कोई भिजवादे इक बोतल मेरे घर पर ही |
बूढा तन थकता है मैख़ाने तक आने जाने में ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
अपनी ज़िद पर अड़े हुए हैं क्यूँ ?
बीच रस्ते खड़े हुए हैं क्यूँ ?
हमने मागां तो कुछ नहीं उनसे |
उनके तेवर चढ़े हुए हैं क्यूँ ?
खूब पढ़ -लिख गए मगर फिर भी |
ज़हन इतने सड़े हुए हैं क्यूँ ?
आप आदी हैं छोटी बातों के |
यूँ ही इतने बड़े हुए हैं क्यूँ ?
जिनको आग़ाज नया करना है |
वो ज़मीं पर पड़े हुए हैं क्यूँ ?
डा० सुरेन्द्र सैनी
जोश में आकर कभी पत्थर न यूँ फेंका करो |
ख़ुद हो शीशे से भी नाज़ुक यार कुछ सोचा करो ||
धूप में तप कर हमारा तन तो लोहा हो गया |
मोम सा है तन तुम्हारा छाँव में बैठा करो ||
मानता हूँ ज़ुल्म ढाना आपकी फ़ितरत में है |
तुम गिरेबाँ में भी अपने झांक कर देखा करो ||
चापलूसों से घिरे रहना सदा जायज़ नहीं |
साफगो लोगों से भी मिलने कभी आया करो ||
पहले छेड़ा आपने और हमने छेड़ा चिढ गए |
ये कहाँ की है शराफ़त सोच कर छेड़ा करो ?
डा० सुरेन्द्र सैनी
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