Thursday, 15 December 2011

तिशनगी ने


तिशनगी   ने   मचाया    ग़दर |
मै   भी   होने   लगी    बेअसर ||

कह   गया   बात   इसी     मुझे |
नींद   आयी   नहीं   रात     भर ||

बेख़बर    हो    गया   उससे    मैं |  
पर   उसे   मेरी   है   हर   ख़बर ||

और  किसका   यक़ीं  अब  करूँ |
एक    वो   ही   लगा     मातबर ||

आज महफ़िल में सब ख़ुश लगे |
मुझको  अच्छा  लगा  देख कर ||

ठीक   था  तो  हमारा  था क़ल्ब |
अब   तो  क़ाबिज़  हुए   डाक्टर ||

साँप   पहलू    में    है     आपके |
उसपे   रखियेगा   पैनी   नज़र ||

बोझ  जब   बन  गयी  ज़िंदगी |
क्यूँ  उठाये  फिरो  दर -ब -दर ||

रहजनों की है सब  पे  निग़ाह |
जिस तरह से भी कीजे सफ़र ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 




Tuesday, 13 December 2011

आप आजाइए


 आप  आजाइए  घर  है  ये  आपका  सोचने   की  ज़रुरत    नहीं  आपको |
जिस तरफ़ से भी आओ सभी दर खुले पूछने  की  ज़रुरत   नहीं  आपको ||

ख़ूब बनिए  संवरियेगा   अब शौक से रह  न जाए कहीं पे भी  कोई शिकन |
ग़ौर   से   मेरी  आँखों  में  बस  देखना  आईने   की  ज़रुरत  नहीं   आपको ||

एक अदना सा ख़ादिम फ़क़त आपका और इसके सिवा तो मैं कुछ भी नहीं |
हर  जगह   हर   घड़ी   मैं  मिलूंगा   खड़ा   ढूँढने  की  ज़रुरत  नहीं  आपको ||                      

इक दफ़्अ तो उसे याद कर लीजिये उसकी नेअमत का हर कोई हक़दार  है |
वो  बिना   मांगे   देता  है  सबको  बहुत  मांगने  की  ज़रुरत  नहीं  आपको ||                      

आप  आ  जायेंगे  घर  सँवर   जाएगा  ये  तबीयत  हमारी  सुधर   जायेगी |
कीजिएगा   यक़ीं    हम   वफ़ादार   हैं   आंकने की  ज़रुरत  नहीं   आपको ||                       

डा० सुरेन्द्र  सैनी     

Thursday, 23 June 2011

सरल सी ग़ज़लें

समय  की  आग  में  जो भी जला है |
उसीकी  आँख  में    इक  ज़लज़ला है ||

समय आख़िर किसी का कब टला है ?
यही जीवन मरण  का सिलसिला है ||

हमारा   मान    लेने    पर   तुला   है |
कहाँ  का  दूध  का तू  भी  धुला   है  ?

परिंदा    आसमाँ   में  उड़   चला  है |
शिकारी  साज़िशों   में   मुब्तला  है ||

तुम्हारे शहर   के  अमृत   से अच्छा |
हमारे   गावँ   का  पानी    भला  है ||

जो दिल  से काम लेते हैं उन्हें  तो |
सदा    ही  भावनाओं  ने  छला है || 

ख़ुदा क्या ख़ुद को भी मैं भूल बैठा | 
अरे  ये  इश्क़  देखो   क्या  बला है || 

चुराके    दिल   दिखाओ      पारसाई |  
हमें  बस  आपसे  ये  ही  गिला  है ||  

मेरी   बन्दूक   हो    कांधा  तुम्हारा |
यही  तो  आज  जीने  की कला है ||

वफ़ा  के  नाम   पर हम जान   देदें |
हमें  तो  ये  विरासत  में मिला है ||

मुसलसल लहर    टकराती  है  देखो |
नहीं  साहिल  हिलाए  से   हिला है ||

मेरा  तो  नाम  तक  भी भूल बैठा |
मगर ग़ैरों से क़ाफ़िर जा मिला है || 

                                                           डा० सुरेन्द्र सैनी  
 
लोगों   से    तू    चाहे   परदादारी   रख |
मुझसे   थोड़ी  सी  तो  आपसदारी रख ||

लीक पे चलना तो दुनिया की आदत है |
अपनी कुछ बातें दुनिया से न्यारी  रख ||

जिसके घर  कल पूरी बोतल  पी आया |
उसके ग़म में भी कुछ  हिस्सेदारी रख ||

मुझको    मेरी   तन्हाईं     में  जीने    दे |
ले  तू  अपने पास ये दुनिया सारी रख ||

हिंदी  उर्दू   के   चक्कर  में  मत पड़ना |
दिल   के यूँ जज़्बात सुनाना जारी रख ||

माना  की  महबूब  रूठ  कर चला गया |
तू  भी  अपने  अंदर  कुछ  ख़ुद्दारी रख ||

घायल हों जज़्बात कभी तो मत   डरना |
तू अपनी  चाहत  का  पलड़ा भारी रख ||

हो    हंगामा   कोई   इससे   पहले   ही |
मैख़ाने   से   उठने   की   तैयारी   रख ||

                                                                डा० सुरेन्द्र सैनी 
 
 
कहने   पर  आमादा  है  कुछ  सुनने  पर  आमादा  है |
जैसे  तैसे  मुझसे  वो  बस  लड़ने   पर   आमादा   है ||

क्या तेरा घर क्या मेरा घर इक   दिन तो छीन जायेगा ?
फिर  क्यूँ  इस  बेगाने  घर में रहने  पर   आमादा   है ||

डरता  हूँ  यें   घर   की   बातें  दुनिया  वाले  सुन  लेगें |
पर  छोटा  बच्चा सारा सच  कहने   पर   आमादा   है ||

घर  की  पहली  शादी  के  इस मस्ती वाले  आलम  में |
दादी  क्या  परदादी  तक भी नचने   पर   आमादा   है ||

मेरा क़ातिल  घर के  अन्दर छत से दाख़िल क्यूँ  होगा ? 
जब घायल दरवाज़ा ख़ुद ही खुलने   पर   आमादा   है ||

                                                                                      डा० सुरेन्द्र सैनी 

साज़िश  की  गई ड्राई डे की अफ़वाहें   फैलाने में |
साक़ी  भी  है मीना  भी है सब  कुछ  मैख़ाने में ||

दीवाने  की  कैसी  ज़िद  है जीना  है तो  पीना है |
दीवाना  तो  दीवाना  है क्या  आये  समझाने   में ?

महगांई के मारों का ग़म मैं भी मिल कर  बाँटूगा |
साक़ी  बस  थोड़ी  ही  देना  तू   मेरे   पैमाने   में ||

बेचारे  रिंदों   की  नज़रें    ठहरी  हैं  दरवाज़े   पर |
साक़ी अटका है ट्रेफिक में वक़्त लगेगा आने में ||

अब तो कोई भिजवादे इक बोतल मेरे घर पर  ही |
बूढा  तन  थकता  है  मैख़ाने  तक  आने जाने में ||

                                                                               डा० सुरेन्द्र सैनी 

अपनी  ज़िद  पर  अड़े हुए हैं क्यूँ ?
बीच    रस्ते   खड़े    हुए  हैं   क्यूँ ?

हमने मागां  तो  कुछ  नहीं उनसे |
उनके   तेवर   चढ़े    हुए  हैं   क्यूँ ?

खूब पढ़ -लिख गए मगर फिर भी |
ज़हन   इतने   सड़े    हुए  हैं   क्यूँ ?

आप   आदी  हैं   छोटी   बातों   के |
यूँ   ही  इतने  बड़े   हुए   हैं   क्यूँ ?

जिनको   आग़ाज   नया  करना  है |
वो  ज़मीं  पर  पड़े  हुए   हैं   क्यूँ ?

                                                 डा० सुरेन्द्र सैनी 

जोश  में  आकर  कभी  पत्थर  न यूँ फेंका  करो |
ख़ुद हो शीशे से भी नाज़ुक यार कुछ सोचा करो ||

धूप में  तप  कर  हमारा  तन  तो लोहा हो गया |
मोम  सा  है  तन  तुम्हारा  छाँव   में  बैठा  करो ||

मानता  हूँ  ज़ुल्म  ढाना  आपकी   फ़ितरत   में है |
तुम  गिरेबाँ  में  भी  अपने  झांक कर देखा करो ||

चापलूसों   से   घिरे   रहना  सदा  जायज़   नहीं |
साफगो  लोगों  से भी  मिलने कभी आया करो ||

पहले  छेड़ा  आपने  और  हमने  छेड़ा चिढ   गए |
ये  कहाँ  की  है  शराफ़त  सोच  कर छेड़ा  करो ?

                                                                              डा० सुरेन्द्र सैनी